शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

घर

घर
केवल अस्थि है
यज्ञ करो !
रीत दो ताल को
हे मीन...
तुम मरो !
अंतड़ियों के घाव पर
धैर्य धरो,
घर केवल अस्थि है
यज्ञ करो !

बंदी है गति औ’
गति का परिहास हो
अश्व के अश्रु औ’
बेड़ियों का हास हो
मृत न हो
हो न मोक्ष
युक्ति की चाल धरो
घर केवल अस्थि है
यज्ञ करो !

शीत हो
निश्तेज हो
भेद दो श्वांस को
त्रास हो
रास हो
भाव का विध्वंस करो..
मृत न हो
हो न मोक्ष
ध्यान धरो... 
घर केवल अस्थि है
यज्ञ करो ।


करुणा सक्सेना

सोमवार, 26 दिसंबर 2016

इंतज़ार

आरम्भ होता है इंतज़ार
सदैव
रात के आखिरी पहर से
पर्दे की ओट में
देखती हूँ बाहर का घुप्प अँधेरा
भीतर का करते हुए अनदेखा
की बस...
अब भोर हुई
और समेट लेती है निशा
अपनी झिलमिल ओढ़नी
कि इंतज़ार है किसी को
सुबह का...

कुछ पैनी आवाज़ों के साथ
खनकते हैं गैंती, फावड़े और तस्सल
दिहाड़ी मजदूर के
उठते हैं पहली किरण के साथ
और यहाँ भीतर
अलार्म के खनकने से पहले
खनकने लगती हैं चूड़ियाँ
बेलते हुए परोंठे
मगर कुछ धीमे
कि सो रहे हैं
घर में लोग अभी तक
बेफिक्री से....
छोटे छोटे हाथों को थामे
लगभग दौड़ती हूँ
बाहर दरवाज़े तक
इंतज़ार में
देश के भविष्य की बस का !

अब कुछ ताप बढ़ा...
खट पट्ट की धारदार आवजों के साथ
संगत करते हैं फावड़े और तस्सल
ठीक वैसे ही जैसे
चॉक और ब्लैक बोर्ड की खट पट्ट
जन्म देती है
संसार के समूचे ज्ञान को !

निकलते ही बस... लौटती हूँ वापस
भारी कदमो से
भीतरी अँधेरों में..
एक बार फिर खो जाने के लिए

और वहाँ बन रही है
स्कूल की नई इमारत...
कौतुहल है भारी!
बच्चों के बीच...
बैठने के निर्धारित स्थानों के इंतज़ार में
इंतज़ार तो मुझे भी है
निश्चित करना है अब
अपना स्थान...

ताप कुछ और बढ़ा.. 
कपड़े, मोज़े, बटुआ और चश्मा
और निकलने लगे रेले
दफ्तरों की ओर
जैसे मुझे ही सम्भालनी हों
सारी अस्त व्यस्त फाइलें..

फिर एक इंतज़ार.. और गूँज उठी दोपहर
खिलखिला कर गोद में मेरी
कि लौट आएं हैं बच्चे
उनके हज़ारों किस्सों की इमारत
और इमारत के हज़ारों किस्से...
घूमते हैं दिनभर.. मेरे भीतर भी !

अब शाम ढली...
और लौटने लगे रेले..
सब लौट आये.. मगर मैं ?
और वहाँ.. उस मज़दूर की औरत
खड़का रही है कनस्तर आटे का
जमा रही है फावड़े और तस्सल..
यहाँ.. मुझे भी लौटना होगा..
दरवाज़े के दोनों तरफ मैं ही खड़ी हूँ
इंतज़ार में... इंतज़ार करते हुए
स्वयं के लौटने का ।

करुणा सक्सेना

शनिवार, 24 दिसंबर 2016

प्रेम

लिखीं हर कवि ने
प्रेम पगी कविताएं
अपने प्रारम्भिक दौर में
और बनाये सेतु
उतरने के लिए
महाकाव्य के पार !

शब्दों में बंधे भाव
और भावों में गुंथे
प्रेम में
कचियाए अनुभव
उतर आए
पतवार बनकर !

एक - एक चाप से
धर्म सिद्ध हुए
और दमक उठी प्रेमाग्नि
पहाड़ों के पार
नापते हुए
मीलों की यात्रा !

प्रेम में बिराजे
कुछ भगवान बनकर
कुछ एक भक्त हुए
और हम खड़े हैं
आज भी
तेरे द्वार
प्रेम में ।


करुणा सक्सेना

गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

आवाज़

एक दिन
उम्र के ढलते पड़ाव पर
कुछ ठिठक कर
देखा मैंने मुड़कर
कई आवाज़ें खड़ी कतारबद्ध
बुला रहीं थीं मुझे...

इस पूरे जीवन में
सुन चुकी थी सब कुछ
फिर भी आसान न था
अनदेखा या अनसुना कर पाना 
आज भी..

समेटा अपने कदमों को 
रुख़ किया आवाज़ो का
मुलाकात हुई
पहली आवाज़ से

यह थी
अधूरे ख्वाब की आवाज़
जिसे पाना न था
संसार का स्नेह 
न दौलत
न देह...
पर अधूरी थी कहीं
आवाज़ और मैं
दोनों ही
असमंजस में
आज भी पूरा न कर पाने की
बेबसी में बढ़ गयी कुछ आगे
अगली आवाज़ की ओर..

सुनी मैंनें
एक कलश चावल की आवाज़ 
और दख़ल था मेरा 
हर शय में...
उसका विराट फैलाव 
मेरी पहचान बना
जीवन और सघंर्ष की पहचान
जिसे कोई पहचान ही न पाया..

दुखी है कलश
अब कर पाने में भरपाई !

बढ़ी मैं फिर कुछ आगे 
खड़ी थी नज़रे झुकाए
मेरे मन की आवाज़...
घुट रही है आज भी
मेरे ही सामने 
असमर्थ सी
और लड़खड़ाती हुई..

सम्बल दिया
और बढ़ गई मैं
बेचैन आवाज़ों की
अन्तहीन यात्रा पर...


करुणा सक्सेना

शनिवार, 10 दिसंबर 2016

तीसरा वनवास

छोर हो तुम
छोर हूँ मैं
बीच मे है बह रहा संघर्ष
फिर भी हर्ष
कि स्थिर हो तुम...
मैं तो अडिग हूँ राह में
कबसे मिलन की चाह में
पर बन्द ही होता नही
संघर्ष का बहना
कि छूटता ही है नही
जीवन का यह गहना
फिर भी बनी रहती है
मुझमें प्यास
है यह आस..
कितने कभी हो दूर
तो कितने कभी हो पास
कि ख़त्म ही होता नही
यह तीसरा वनवास ।

करुणा सक्सेना